मनुष्य के जीवन में अभाव, कठिनाई और चिंता उसके जीवन के वास्तविक उद्देश्य को रेखांकित करती है। मेरे पिता एक ऐसे ही व्यक्ति थे जिनका प्रारंभिक जीवन संघर्षों एवं अभावों से भरा हुआ था। फिर उनकी छोटी सी नौकरी, वह भी ग्रामीण क्षेत्र से जुड़ी हुई। इन सबने उनको जीवन में अन्दर से कोमल, उदार और बाहर से अत्यन्त सहनशील बनाया था।
ग्रामीण जीवन की सम्पृक्तता और ग्रामीण जीवन के अभावों ने उन्हें समाज के प्रति अत्यंत संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने के लिये प्रेरित किया।
मैं भी ऐसे ही परिवेश में पला बढ़ा। मैंने अपने पिता की समाज की चिंताओं को महसूस किया। और पिताजी के द्वारा समाज के लिए कुछ करने की भावना ने मुझे समाज सेवा करने के लिये प्रेरित किया।
मेरी माँ एक अशिक्षित, टिपीकल ग्रामीण महिला थीं। लेकिन शिक्षा के प्रति इतनी सजग कि तत्समय के तमाम अवरोधों के बावजूद बिना पाठशाला गये, पैरों में लगाई जाने वाली महावर के रंग से घर में रहकर अक्षर-ज्ञान सीख-सीख कर पुस्तक पढ़ना और अखबार पढ़ना सीख लिया।
उनकी शिक्षा की इच्छा इतनी प्रबल हुई कि उन्होंने अपने चारों पुत्रों को रात-रात भर जाग कर पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उनकी यह इच्छा इतनी बलबती हो गई कि उनके सभी पुत्र और पुत्रवधुएँ न केवल शिक्षित हुईं बल्कि नौकरी में भी आ गईं।
मेरी माँ धार्मिक के साथ-साथ अध्यात्मिक ज्यादा थीं। संसाधनों की सीमितता और उनकी ग्रामीण पृष्ठभूमि ने उन्हें घर के आँगन व छत पर पौधे लगाने के लिए प्रेरित किया।
पौधे भी ऐसे जो हरियाली भी दें और उसकी जरूरत भी पूरी करें जैसे तुलसी, नीम, हल्दी, अदरक, नींबू और फूलों के पौधे। अनपढ़ होने के नाते वह पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ नहीं समझ पाती थीं, लेकिन अनजाने में ही सही, उन्होंने घर को सदैव हरा-भरा रखा। इससे पर्यावरण अपने आप ही अच्छा रहता था।
पेड़-पौधे भी ऐसे जैसे उसके छूने भर से लहराने लगते। उन्हें इस दुनिया से गए कई वर्ष बीत गए लेकिन मेरी परम आदरणीय भाभी आज भी कहती हैं कि “उनकी सास एक भी पौधा कहीं से भी लाकर लगा देती थीं तो उसमें जान आ जाती थी।”
एक दुःखद बात यह हुई कि उनके चार पुत्रों में से एक दिव्यांग पोलियो से ग्रस्त हो गया। उन्हें किसी ने बताया कि पोलियो अत्यंत संक्रामक है और दूषित जल, दूषित खाद्य पदार्थों से फैलता है। यह जानकर वह अत्यंत परेशान हो गईं और अपने अशिक्षित होने को कोसने लगीं और शायद कभी खुद को माफ नहीं कर पाईं।
मुझे मेरे परिवार के जीवन में घटी इन्हीं घटनाओं ने दिशा दी और मेरे इस दृष्टिकोण को और मजबूती प्रदान की कि जीवन में चार ही समस्याएँ ऐसी हैं जिनपर नियंत्रण पाने पर समाज का उत्थान संभव है।
मैने इन्हीं क्षेत्रों को प्राथमिकता देते हुए कार्य प्रारम्भ किया:
संस्था के यही चार क्षेत्रक हैं जिन पर मैं अपने वालियंटर्स के साथ और समाज के उन चंद लोगों के साथ मिलकर जो मेरे कार्यों को सरल और सहज बनाते हैं, एक लंबी यात्रा पर निकल पड़ा हूँ।
"सेवा करने का यह भाव मेरे परिवार द्वारा पैतृक रूप से स्वयं उत्पन्न हुआ है। मेरा मानना है कि ममता (प्यार), सेवा और दया किसी भी मनुष्य के भीतर स्वयं उत्पन्न होती है – इसे उसमें उत्पन्न किया नहीं जा सकता।"
इसी ममता, सेवा और दया – यानी (M.S.D) से माँ सूरजा देवी नामक संस्था का जन्म हुआ।